इन दिनों BYJU का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमें एक शिक्षिका बच्चों को जीतना सिखा रही है. ऐसा ही एक विज्ञापन Bournvita का था जिसमें एक माँ अपने बच्चे के साथ दौड़ लगाकर उसे जीतना सिखाती है.
जीतने के इस पागलपन में हम भूल जाते हैं कि हम बच्चों को बीमार कर रहे हैं. जो बच्चा पूरे समय जीतना चाहेगा, वह हमेशा डरा हुआ, असुरक्षित महसूस करेगा क्योंकि हर जगह उसे केवल दुश्मन ही दिखेंगे.
इस जीत की लालच में बच्चा असंवेदनशील भी हो जाएगा. कल्पना करें कि उस बच्चे के प्रबल प्रतिद्वंदी की माँ अचानक मर जाती है. अगले दिन परीक्षा है. बच्चा सुखी होगा या दुखी? सुखी क्योंकि अब उसकी जीत की संभावना बढ़ गई है.
जो बच्चे हर समय दौड़ में लगे होते हैं, प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हैं, किसी को हराने, किसी को पछाड़ने, किसी से आगे बढ़ने में लगे होते हैं, वे हमेशा तनाव और चिंता में जीते हैं. वे कभी विश्राम नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें भय बना रहता है कि यदि वे रुके तो कोई उनसे आगे बढ़ जाएगा. धीरे-धीरे यह आदत एक गंभीर मानसिक बीमारी बनती जाती है.
इस रुग्ण मन में कभी शांति, प्रेम, आनंद, दयालुता का रस बहेगा? नहीं. यहाँ तो चालाकी, धूर्तता, घृणा, ईर्ष्या, स्वार्थ का विष ही उपजेगा.
अभिभावक और शिक्षक बच्चों को जीतना नहीं, जीना सिखाएँ. किसी और से आगे बढ़ना नहीं बल्कि अपने आपको निखारना, अपनी पूरी ऊर्जा और समय का सदुपयोग करना, दूसरों के साथ तालमेल बनाना, उनसे कुछ सीखने की भावना सिखाएँ.
जो बच्चे ऐसा जीवन जिएँगे, वे निश्चित ही सफल भी होंगे. सफल होंगे, जीतेंगे नहीं. ऐसे सफल लोग सुखी होंगे. जो सुखी होगा, वह दूसरों की सहायता भी करेगा. जो सहायता करेगा, वह सहायता पाएगा भी. लेकिन जो स्वयं की जीत के लिए दूसरों का शोषण करेगा, एक दिन स्वयं ही शोषित होगा. एक दिन अपने आप को अकेला पाएगा.